आचार्य श्रीराम शर्मा >> सफलता के सात सूत्र साधन सफलता के सात सूत्र साधनश्रीराम शर्मा आचार्य
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विद्वानों ने इन सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है, वे हैं- परिश्रम एवं पुरुषार्थ ...
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अपने जन्मसिद्ध अधिकार सफलता का वरण कीजिए
मनुष्य की असफलता के कारणों में एक कारण अयोग्यता भी है। जिसने किसी काम को करनेका सही ढंग सीखने में प्रमाद किया है, उसकी रीति-नीति के संबंध में ज्ञान अर्जित करने का कष्ट नहीं उठाया है, वह उस काम को ठीक से अंजाम दे सकने कीआशा अपने से नहीं रख सकता। यदि वह हठ अथवा लोभ के वशीभूत उस काम को हाथ में ले भी लेगा तो दूसरों के साथ अपनी दृष्टि में भी उपहासास्पद बन जाएगाकिसी काम को सफलतापूर्वक करने के लिए तत्संबंधी योग्यता का होना नितांत आवश्यक है।
योग्यता किसी दैवी वरदान के रूप में नहीं मिलती। वह एक ऐसा सुफल है, जिसकी प्राप्तिपरिश्रम एवं पुरुषार्थ के पुरस्कार स्वरूप ही होती है। जो आलसी है, अकर्मण्य हैं, काम करने में जिनका जी नहीं लगता, परिश्रम के नाम सेजिन्हें पसीना आ जात है, वे किसी विषय में समुचित योग्यता अर्जित कर सकते हैं, ऐसी आशा दिवा-स्वप्न के समान मिथ्या सिद्ध होगी। योग्यता की उपलब्धिपरिश्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा ही संभव है।
किसी विषय में सफलता हस्तगत करने के लिए, उस विषय की पर्याप्त योग्यता का होनाआवश्यक है और योग्यता की उपलब्धि परिश्रम एवं पुरुषार्थ पर निर्भर है। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि सफलता का मूलभूत हेतु परिश्रम एवं पुरुषार्थही है।
जिनको संसार में कुछ सराहनीय कर दिखने की इच्छा है, अथवा जो चाहते हैं कि सफलताएँ उनकेजीवन का श्रृंगार करें उन्हें चाहिए कि पूरे तन-मन और पूरी सच्चाई के साथ अपने में परिश्रम तथा पुरुषार्थ का स्वभाव विकसित करें। एक बारध्येयपूर्वक परिश्रमी स्वभाव का विकास कर लेने पर, फिर वह ऐसा सहज स्वभाव का बन जाता है कि किसी के लिए अकर्मण्य रहकर कुछ क्षण बिता सकना भी पहाड़बन जाता है।
कर्मण्य स्वभाव वाला व्यक्ति इतना कर्मशील बन जाता है यदि विवशतावश उसे एक-आध दिननिकम्मा होकर बैठना पड़े तो उसके लिए वह समय कारावास की दुःखदाई स्थिति से कम नहीं होता। परिश्रमी स्वभाव वाला व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बेकार नहींबैठ सकता। उसे काम करने की आवश्यकता उसी प्रकार अनुभव होती है। जिस प्रकार भूख लगने पर खाने की आवश्यकता। भूख लगने पर जब तक कि कुछ खा न लिया जाए तबतक चैन नहीं पड़ता उसी प्रकार परिश्रमी स्वभाव वाला व्यक्ति काम के अभाव में तब तक बेचैन बना रहता है, जब तक कि उसे मनमाना काम करने को नहीं मिलजाता। जिसने स्वभाव को इसी सीमा तक परिश्रमी एवं पुरुषार्थी बना लिया है, मानना होगा कि उसने अपने भाग्य का निर्माण कर लिया है। और सफलता की जयमालालेकर विचरण करने वाले देवदूतों को अपनी ओर आकर्षित करने की योग्यता उपलब्ध कर ली है।
जिन सुविधाजनक परिस्थितियों को प्रारब्ध की संज्ञा दी जाती है, जिन साधनों और उपादानोंको मानव जीवन की सफलता का सहायक माना जाता है और जो सौभाग्य फलों के रूप में जन-जन को स्पृहणीय होते हैं, वे सब परिश्रम एवं पुरुषार्थ के पुरस्कारके सिवाय और कुछ नहीं होते। 'मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है-इस सूक्ति वाक्य को कर्मठ व्यक्तियों ने, पुरुषार्थ द्वारा, असंभव को संभवसिद्ध करके विचारों को, संसार के सम्मुख एक सिद्ध मंत्र के रूप में प्रस्तुत करने के लिए विवश कर दिया। सुख-दुःख, हानि-लाभ, सफलता दैवाधीनहैं, इनमें मनुष्य की गति नहीं है-इस प्रकार की भावना आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में भले ही कुछ अर्थ रखती हो किंतु भौतिक धरातल पर इसका अधिकमहत्त्व नहीं माना जा सकता। यदि इस दार्शनिक भावना को देशकाल और परिस्थितियों का सफलता के सात सूत्र-साधन विचार किए बिना सामान्य जीवनक्रम में प्रवृत्त कर दिया जाए तो निश्चय ही संसार का विकास अवरुद्ध हो जाए और इस कर्म-लोक में अकर्मण्यता का साम्राज्य स्थापित होते देर न. लगे।लोग असमय में अकारण ही उक्त भावना का बहाना लेकर कंधा डाल दें और तब सब संसार का यह सक्रिय स्वरूप वैसे ही समाप्त हो जाए जैसे पक्षाघात का आक्रमणहोने पर चलते-फिरते मनुष्य की गति स्थगित हो जाती है।
कभी-कभी देखा जाता है कि प्रयत्न करने पर भी कुछ लोग वांछित सफलता नहीं पाते और तबदृष्टिकोण में इस भ्रम की संभावना हो उठती है कि प्रयत्न और पुरुषार्थ व्यर्थ है, मनुष्य का भाग्य ही प्रबल होता है किंतु यह भ्रम सर्वथा भ्रमही है, सत्य का इससे दूर का भी संबंध नहीं होता। ऐसे प्रयत्नशील व्यक्ति की असफलता को लेकर भाग्यवाद में आस्था की स्थापना करने लगना मानसिकनिर्बलता का लक्षण है। निश्चय ही उस असफल व्यक्ति के प्रयत्न में कुछ न कुछ खोट अथवा कमी रही होगी, जिससे कि उसे उस समय असफलता का मुंह देखनापड़ा। यदि प्रयत्न पूरा और सावधानी के साथ किया जाए तो किसी के आने का अवसर ही शेष नहीं रह जाता। पूरा और सुचारु प्रयत्न सफलता की एक ऐसी गारंटीहै जो कभी असिद्ध नहीं हो सकती।
किसी एक प्रयत्न से कोई निश्चित सफलता मिल ही जाए, यह आवश्यक नहीं। सफलता केलिए कभी-कभी प्रयत्नों की परंपरा लगा देनी होती है। परिश्रम एवं पुरुषार्थ के रूप में उसका उतना मूल्य चुका ही देना होता है जितना उसके लिए अनिवार्यहै। एक बार असफलता का सामना हो जाने पर किसी को असफल मान लेना उसके साथ अन्याय करने के समान है। संसार में लिंकन जैसे हजारों व्यक्ति हुए हैं,जिन्होंने सैकड़ों बार असफल होकर भी, अंत में अभीष्ट सफलता का वरण कर ही लिया सच्चा पुरुषार्थी वास्तव में वही है, जो बार-बार असफलता को देखकर भीअपने प्रयत्न में शिथिलता न आने दें और हर असफलता के बाद एक नए उत्साह से सफलता के लिए निरंतर उद्योग करता रहे। जो पत्थर एक आघात में नहीं टूटताउसे बार-बार के आघात से तोड़ा ही जा सकता है।
असफलता को अंगीकार करने का अर्थ है निराशा को निमंत्रण देना। निराशा केदुष्परिणामों के विषय में अधिक कुछ कहना व्यर्थ है। निराशा की भावना को यदि नागपाश की भाँति कह दिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा। निराशा मनुष्य कीक्रियाशीलता पर सर्प की भाँति लिपटकर न केवल उसकी गति ही अवरुद्ध कर देती है प्रत्युत् अपने विषैले प्रभाव से उसके जीवन तत्त्व को भी नष्ट करतीरहती है।
यह अधिक अस्वाभाविक नहीं है कि असफलता की स्थिति में कभी-कभी निराशा मनुष्य केविचारों पर अपनी काली छाया डालने का साहस कर ही जाती है, किंतु उस छाया को देर तक ठहरने न देना चाहिए। यदि यह गलती की जाएगी तो वर्तमान पर ही नहींभविष्य पर भी उसका दूरगामी कुप्रभाव पड़े बिना न रह सकेगा। वे सारे स्वप्न, सारी स्वर्ण कल्पनाएँ, जिनको मूर्तिमान करने की आकांक्षा लेकरअपने कर्म क्षेत्र में कदम बढ़ाया है सहसा धूमिल पड़ जाएँगी। व्यक्ति का आत्मविश्वास उत्साह और साहस धीरे-धीरे साथ छोड़ने लगेगा। विचारों केमाध्यम से जीवन क्षितिज पर अंधकार घनीभूत हो उठेगा और तब कुंठा और कायरता के सिवाय उनके पास कुछ भी तो शेष न बचेगा। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है किअसफलता के साथ निराशा को जोड़कर ऐसी हानि न की जाए जो कभी पूरी न हो सके।
इस अनुभव सिद्ध सत्य को स्वीकार कर लेने में यह प्रकार से हित ही हित है किनिरंतर काम में जुटा रहना निराशा का सर्वश्रेष्ठ और सृजनात्मक उपचार है। काम में संलग्न रहने से मन की सारी वृत्तियाँ एकाग्रता के साथ उस काम कीओर ही प्रवृत्त रहती हैं। विचारों का प्रभाव कार्य के साथ चलता रहता है। इस संलग्नता के कारण विचारों में ऐसा कोई स्थान रिक्त नहीं रहता, जहाँ आकरनिराशा अपना अधिकार जमा सके। जहाँ अकर्मण्यता की स्थिति में निराशा के विचार मस्तिष्क को घेरने लगते हैं, वहाँ इसके विपरीत सक्रियता की स्थितिमें सृजनशीलता के कारण आशापूर्ण विचारों का उदय होता चलता है।
जीवन में सफलता की आकांक्षा रखने वालों को चाहिए कि सामायिक असफलता को चुनौतीकी भाँति स्वीकार करें और अपनी सृजन-शक्ति के बल पर असफलता की पोषक निराशा को पास फटकने दें। जिसने निराशा से दूर रहकर असफलता को सफलता में बदल देनेका संकल्प लेकर अपने उद्योग को और अधिक बढ़ा दिया होता है, उसने मानो दूर तक अपनी मंजिल का मार्ग स्पष्ट और निरापद बना लिया होता है।
सफलता के मार्ग में कठिनाइयों का आना असंभव नहीं क्योंकि उनका आना स्वाभाविक है।जिस मार्ग में कोई कठिनाई नहीं जिस पर विरोध अथवा अवरोध की संभावना नहीं, वह मार्ग किसी महान ध्येय की ओर जा रहा है। ऐसा मान लेने में जल्दी नहींकरनी चाहिए। आज तक के प्रत्येक महापुरुष का जीवन बतलाता है कि महानता की ओर जाने वाला आज तक ऐसा कोई भी अन्वेषण नहीं किया जा सका, जिस परकठिनाइयों का सामना न करना पड़े। बीच-बीच में आने वाली कठिनाइयाँ इस बात की ज्वलंत साक्षी हैं कि अमुक मार्ग किसी असामान्य एवं उत्तम ध्येय की ओरजाता है।
अपने ध्येय मार्ग पर विघ्न-बाधाओं को देखकर अनेक लोग हतोत्साह हो उठते हैं। ऐसेव्यक्तियों को यह मान लेने में संकोच न करना चाहिए कि किसी महान् सफलता को वरण करने की उनकी आकांक्षा परिपक्व नहीं है। इस प्रकार की आकांक्षा जिनकेहृदय में लगन बनकर लगी होती है, वे हँसते-खेलते विघ्न-बाधाओं से टक्कर लेते हुए साहसपूर्वक अपने ध्येय मार्ग पर बढ़ते चले जाते हैं। मार्ग कीकठिनाइयों से टकराने में जिस आत्मिक आनंद की उपलब्धि होती है, उसे पाने के अधिकारी ऐसे पुरुषार्थी पुरुषों के सिवाय और कौन हो सकता है ?
ध्येय मार्ग का कोई भी सच्चा पथिक इस सत्य के समर्थन में उत्साह प्रकट किए बिनानहीं रह सकता कि मार्ग में यदि कठिनाइयों से टकराने का अवसर न मिले तो असहनीय नीरसता का समावेश हो जाए और वह नीरसता लक्ष्य पर पहुँचकर दूर नहींहो सकती। किस समरसता के साथ मंजिल पर कौन-सी नवीनता, कौन-सा संतोष और हर्ष उपलब्ध हो सकता है ! यह मार्ग की बाधाएँ दूर करने में किए गए संघर्ष की हीविशेषता है, जो मंजिल पर पहुँचकर विश्राम संतोष और आनंद के रूप में अनुभव होती है। प्रगति का वास्तविक आनंद इसी में है कि कठिनाइयों का संयोग आतारहे और उन पर विजय प्राप्त की जाती रहे। हलचल के बिना जीवन सूना और नीरस हो जाता है।
कठिनाइयों से भय मानना अंतर में छिपी कायरता का द्योतक है। अपनी इस कायरता के कारणही मार्ग में आई हुई कठिनाई पहाड़ के समान दुरूह मालूम होती हैं किंतु जब उस कठिनाई को दूर करने के लिए साहसपूर्वक जुट पड़ा जाता है तो यह विदितहोते देर नहीं लगती कि जिस कठिनाई को हम पर्वत के समान दुर्गम समझ रहे थे, वह उस बादल के समान हीन अस्तित्व थी जो थोड़ी-सी हवा लगने परटुकड़े-टुकड़े होकर छितरा जाता है।
सफलता को आसान समझकर उसकी कामना करने वाले व्यक्ति प्रौढ बुद्धि के नहीं माने जासकते। सफलता की उपलब्धि सरलता से नहीं कठोर संघर्ष से ही संभव होती है। अध्ययन, अध्यवसाय और अनुभव की साधना किए बिना अभीष्ट सफलता को पा सकने कीकल्पना भी नहीं की जा सकतीs। अपने को योग्य बनाकर पूरे संकल्प के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ना होगा। मार्ग में आने वाली बाधाओं का, यह मानकर स्वागतकरना होगा कि वे हमारे साहस, निश्चय और संकल्प की परीक्षा लेने आई हैं। कठिनाइयों को देखकर भयभीत होने के स्थान पर उन्हें दूर करने के लिए जी-जानसे जुट जाना होगा। इस प्रकार पूरे समारोह और साहस के साथ लक्ष्य की ओर अभियान करने पर सफलता की आशा की जा सकती है। इसमें संदेह नहीं कि ऐसाअदम्य उत्साह और उद्योग की क्षमता प्रकट करने वाले पुरुषार्थी के गले में जयमाला पड़ती ही है और वे समाज द्वारा अभिवंदित होकर उन्नति के उच्चसिंहासन पर अभिषेक के अधिकारी बनते हैं।
सफलता की सिद्धि मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है। जो व्यक्ति अपने इस अधिकार कीउपेक्षा करके यथा-तथा जी लेने में ही संतोष मानते हैं, वे इस महा-मूल्य मानव जीवन का अवमूल्यन कर एक ऐसे सुअवसर को खो देते हैं, जिसका दुबारा मिलसकना संदिग्ध है। अस्तु उठिए और आज से ही अपनी वांछित सफलता को वरण करने के लिए उद्योग में जुट पडिए।
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- सफलता के लिए क्या करें? क्या न करें?
- सफलता की सही कसौटी
- असफलता से निराश न हों
- प्रयत्न और परिस्थितियाँ
- अहंकार और असावधानी पर नियंत्रण रहे
- सफलता के लिए आवश्यक सात साधन
- सात साधन
- सतत कर्मशील रहें
- आध्यात्मिक और अनवरत श्रम जरूरी
- पुरुषार्थी बनें और विजयश्री प्राप्त करें
- छोटी किंतु महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखें
- सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है
- अपने जन्मसिद्ध अधिकार सफलता का वरण कीजिए